नई दिल्ली: देश के उच्चतम न्यायालय ने गुरुवार को एक महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न पर फैसला सुनाते हुए स्पष्ट किया कि राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल या राष्ट्रपति को निर्णय लेने के लिए कोई समयसीमा बाध्यकारी नहीं की जा सकती। अदालत ने कहा कि न ही न्यायपालिका विधेयकों को मंजूरी दे सकती है और न ही समयसीमा लागू कर सकती है।
मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई की अगुवाई वाली पाँच-न्यायाधीशीय संविधान पीठ ने कहा कि राज्यपाल अनुच्छेद २०० के तहत दिए गए अधिकारों से आगे जाकर विधेयक को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते। पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पी. एस. नरसिम्हा और ए. एस. चंदुरकर शामिल थे।
अदालत ने कहा कि भारत जैसे लोकतांत्रिक ढाँचे में राज्यपालों के लिए समयसीमा तय करना संविधान के लचीलेपन के विरुद्ध है।
तीन विकल्प ही उपलब्ध:
पीठ ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 200 राज्यपाल को तीन ही विकल्प देता है: १. विधेयक को मंजूरी देना २. उसे राष्ट्रपति के पास भेजना ३. मंजूरी रोककर टिप्पणियों सहित विधानसभा को वापस भेजना (यदि वह वित्त विधेयक न हो)।
संविधान में इन अधिकारों के उपयोग के लिए कोई समयसीमा निर्धारित नहीं होने के कारण न्यायालय के लिए समयसीमा तय करना उपयुक्त नहीं माना गया।
पूर्व निर्देश पर पुनर्विचार:
तमिलनाडु सरकार की याचिका पर इस वर्ष अप्रैल में आई एक पिटीशन में यह कहा गया था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति तीन महीने के भीतर विधेयकों पर निर्णय दें। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद १४३(१) का उपयोग करते हुए इस आदेश से जुड़े १४ प्रश्न सुप्रीम कोर्ट के समक्ष रखे थे। इन्हीं प्रश्नों पर विचार करते हुए संविधान पीठ ने आज का फैसला दिया।
राज्यपाल के कदमों की न्यायिक समीक्षा सीमित:
पीठ ने कहा कि अनुच्छेद २०० के तहत राज्यपाल के निर्णय मंत्रिपरिषद की सलाह से बाध्य नहीं होते और सामान्य परिस्थितियों में न्यायिक समीक्षा के दायरे में भी नहीं आते।
हालाँकि, यदि राज्यपाल की अत्यधिक लंबी और अस्पष्ट निष्क्रियता लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित करती है, तब अदालत संविधान के अनुसार सीमित दायरे में दखल दे सकती है।
“डीम्ड असेंट” की अवधारणा खारिज:
पीठ ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद १४२ के तहत भी स्वतः स्वीकृति (डीम्ड असेंट) का प्रावधान नहीं हो सकता और न ही किसी अन्य संवैधानिक प्राधिकरण द्वारा राज्यपाल के अधिकारों को प्रतिस्थापित किया जा सकता है।
संवैधानिक पद पर न्यायालय का अधिकार:
अनुच्छेद ३६१ के तहत राज्यपाल व्यक्तिगत मुकदमों से सुरक्षित हैं, परन्तु उनका संवैधानिक पद न्यायिक समीक्षा से परे नहीं है।
अदालत ने कहा कि विधेयक के कानून बनने से पहले उसके विषय में कोई न्यायिक निर्णय देना भी उपयुक्त नहीं है।










