२३३ साल पुरानी अनोखी परंपरा
कोलकाता: बंगाल की हर पूजा अपने भीतर लोकजीवन और संस्कृति की अद्भुत झलक समेटे होती है। जैसे दुर्गा पूजा या काली पूजा में श्रद्धा और भव्यता दिखाई देती है, वैसे ही जगद्धात्री पूजा में बंगाल की आस्था का अनोखा रूप देखने को मिलता है।
हुगली जिले के भद्रेश्वर स्थित तेतुलतला बारोवारी जगद्धात्री पूजा में ऐसी परंपरा आज भी जीवित है, जो पूरे देश में अनोखी मिसाल पेश करती है। यहाँ देवी का वरण महिलाएं नहीं, बल्कि पुरुष साड़ी और घूंघट ओढ़कर करते हैं।
स्थानीय लोगों के लिए यह देवी ‘बूढ़ी माँ’ कहलाती हैं। इस वर्ष यह पूजा २३३वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है। १७वीं शताब्दी में राजा कृष्णचंद्र के दीवान दाताराम शूर ने इसका आरंभ किया था। पहले यह पारिवारिक पूजा थी, जो समय के साथ बारोवारी (सार्वजनिक) रूप में बदल गई।
इस परंपरा के पीछे ऐतिहासिक कारण है। ब्रिटिश काल में जब भद्रेश्वर के गौरीहाटी क्षेत्र में अंग्रेज और फ्रांसीसी सेनाओं की छावनी थी, महिलाएं घर से बाहर निकलने में असुरक्षित थीं। तब पुरुषों ने साड़ी पहनकर, सिंदूर, शंख-चूड़ी और घूंघट ओढ़कर देवी का वरण करना शुरू किया।
दशमी के दिन, प्रतिमा विसर्जन से पहले ‘माँ’ का वरण में पुरुष कनकांजलि अर्पित करते हैं। कपाल पर सिंदूर और वरन थाली लिए यह दृश्य भक्तों को भाव-विभोर कर देता है।
यह पूजा पूरी तरह भक्तों के दान पर निर्भर है और कोई चंदा नहीं लिया जाता। नवमी के दिन हजारों श्रद्धालु भोग दर्शन के लिए आते हैं। भद्रेश्वर की यह पूजा समर्पण, समानता और लोकविश्वास का प्रतीक है।
बुधवार को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पोस्ता से इस पूजा का वर्चुअल उद्घाटन किया।
 
								



 
								

 
															 
                     
								 
								 
															 
								 
								 
								




