संवैधानिक नियुक्तियों को बहुमत से दी वैधता
काठमांडू: रात के अंधेरे में आया सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला – संवैधानिक आयोगों में की गई ५२ नियुक्तियों को वैध ठहराते हुए बहुमत से सदर कर दिया गया है। पाँच सदस्यीय संवैधानिक इजलास में से तीन न्यायाधीशों ने नियुक्तियों के पक्ष में फैसला दिया, जबकि दो ने असहमति जताई।
न्यायमूर्ति सपना प्रधान मल्ल, मनोजकुमार शर्मा और कुमार चुडाल ने नियुक्तियों को वैध बताया, जबकि प्रधानन्यायाधीश प्रकाशमान सिंह राउत और न्यायाधीश नहकुल सुवेदी ने इन नियुक्तियों को रद्द किए जाने की राय दी थी। हालांकि अल्पमत में रहने के कारण उनका मत प्रभावी नहीं हो सका।
फैसले के अनुसार, अब संवैधानिक पदाधिकारी अपने पूरे कार्यकाल तक काम करते रहेंगे और उनकी वैधानिकता पर उठ रहे सवाल खत्म हो जाएंगे।
क्या है संवैधानिक नियुक्तियों का विवाद?
यह विवाद नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (नेकपा) के भीतर बढ़ते आंतरिक मतभेदों से शुरू हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और प्रचण्ड-माधव समूह के बीच गुटबाजी के चलते संवैधानिक परिषद की बैठक तक प्रभावित हो गई थी। संवैधानिक परिषद में कुल ६ सदस्य होते हैं, लेकिन उस समय बैठक में सिर्फ तीन सदस्य – प्रधानमंत्री ओली, राष्ट्रिय सभा अध्यक्ष गणेश तिमिल्सिना और प्रधानन्यायाधीश चोलेन्द्र शम्शेर जबरा – ही मौजूद थे।
सभामुख अग्नि सापकोटा और विपक्ष के नेता शेरबहादुर देउवा ने बैठक का बहिष्कार किया था, जिससे गणपूरक संख्या नहीं बन पाई थी। ऐसे में प्रधानमंत्री ओली ने एक अध्यादेश जारी कर परिषद में बहुमत से निर्णय लेने की व्यवस्था की, जिसके आधार पर परिषद ने २०७७ माघ २१ (४ फरवरी २०२१) को ३२ और २०७८ असार १० (२४ जून २०२१) को २० संवैधानिक पदों के लिए सिफारिश की थी। तत्कालीन राष्ट्रपति विद्या भण्डारी ने बिना संसदीय सुनवाई के इन सभी पदाधिकारियों की नियुक्ति कर दी थी।
इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में १५ रिट याचिकाएं दाखिल हुई थीं। मामले की लगातार सुनवाई के बाद अंततः अदालत ने नियुक्तियों को वैध करार दिया।
न्यायिक मतभेद और निष्कर्ष:
तीन न्यायाधीशों ने नियुक्तियों को वैध ठहराया और इन्हें संवैधानिक माना।
प्रधानन्यायाधीश राउत और न्यायाधीश सुवेदी ने विशेषतः २०७७ की नियुक्तियों को असंवैधानिक बताते हुए इन्हें रद्द किए जाने की राय रखी।
न्यायाधीश सपना प्रधान मल्ल का यह भी कहना था कि नियुक्तियों को संसदीय सुनवाई में भेजने के लिए परमादेश जारी किया जाना चाहिए, हालांकि बहुमत में उनके इस मत को समर्थन नहीं मिला।
फैसले का प्रभाव:
यह फैसला न केवल संवैधानिक नियुक्तियों की वैधता को सुनिश्चित करता है, बल्कि प्रधानमंत्री ओली के कार्यकाल के दौरान लिए गए विवादास्पद निर्णयों को भी कानूनी पुष्टि देता है। यह निर्णय न्यायपालिका के भीतर मतभेदों के बावजूद बहुमत की शक्ति को दर्शाता है और यह संकेत देता है कि भविष्य में ऐसे संवैधानिक संकटों से निपटने के लिए विधिक स्पष्टता और राजनीतिक सहमति दोनों की आवश्यकता होगी।










