सीमा विवाद, संधि और मधेश का सवाल

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झापा: नेपाल–भारत सीमा विवाद के बीच लिपुलेख और कालापानी का मुद्दा लगातार चर्चा में है। नेपाली संविधान में इसे “अपरिवर्तनीय भौगोलिक अखंडता” के अंतर्गत दर्ज किया गया है। इसी पर वरिष्ठ विश्लेषक राकेश मिश्रा ने अपने सामाजिक संजाल (स्टेटस) में तीखे प्रश्न उठाए हैं और इसे केवल सीमा विवाद नहीं, बल्कि मधेश और नेपाल के भविष्य से भी जोड़ा है।
१८१६ की संधि और संविधान का प्रश्न:
मिश्रा का कहना है कि नेपाल के दावे का आधार १८१६ की सुगौली संधि है। लेकिन जब संविधान में यह क्षेत्र “अपरिवर्तनीय” रूप से दर्ज है, तब भारत या चीन के साथ किसी भी प्रकार की वार्ता या समझौता कैसे सम्भव होगा? क्या वार्ता के लिए संविधान संशोधन आवश्यक नहीं होगा? उन्होंने प्रश्न किया—“क्या हम सिर्फ दावे करने के लिए दावे कर रहे हैं?”
गरमपंथी राष्ट्रवाद बनाम यथार्थ:
कुछ राष्ट्रवादी आवाजें चीन और भारत के शीर्ष नेताओं को सीधे धमकाने की बात करती हैं। मिश्रा सवाल करते हैं कि नेपाल किस नैतिक या भौतिक आधार पर परमाणु शक्तियों को धमकाएगा? क्या यह यथार्थ से परे की सोच नहीं है?
मिश्रा ने कालापानी और लिपुलेख को लेकर पूछा कि आखिर १९५० के बाद स्वतंत्र भारत को यह क्षेत्र किन शर्तों पर मिला? क्या नेपाल ने इसे स्वेच्छा से दिया या भारत ने जबरन ले लिया? यदि दावे का आधार सुगौली संधि है, तो सबसे पहले उस संधि का उल्लंघन किसने किया? उन्होंने जोर देकर कहा कि प्रमाण सार्वजनिक किए जाएं।
मधेश की स्थिति और अधूरी शर्तें:
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न उन्होंने मधेश से जोड़ा। १८१६ और१८५७ की संधियों के आधार पर नेपाल को मधेश का कुछ भूभाग “लिखित शर्तों सहित” मिला था। मिश्रा का सवाल है—क्या नेपाल ने उन शर्तों का पालन किया है? यदि नहीं, तो मधेश और मधेशी समाज की स्थिति पर भी गंभीर बहस होनी चाहिए।
बाहरी मध्यस्थता से परहेज क्यों?:
मिश्रा का सुझाव है कि यदि नेपाल चाहे तो इस मुद्दे पर आंतरिक संवाद कर सकता है, लेकिन आवश्यकता पड़ी तो भारत और ब्रिटेन जैसे सरोकारवाला पक्षों की संलग्नता को भी अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।
भविष्य की चेतावनी:
अपने स्टेटस में मिश्रा लिखते हैं—“इन प्रश्नों की अनदेखी कर सकते हैं, लेकिन मधेश का ५० साल का इतिहास, संविधान घोषणा काल की घटनाएँ और हाल ही में पारित खतरनाक भूमि विधेयक—ये सब मिलकर इस मुद्दे को भविष्य में और गम्भीर रूप से सामने ला देंगे। इसका क्षेत्रीय भू–राजनीति पर गहरा और दीर्घकालिक प्रभाव पड़ना तय है।”
( यह रिपोर्ट राकेश मिश्रा के सामाजिक संजाल (स्टेटस) से साभार।)

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