कोलकाता: हाईकोर्ट के जज की आवाज में लोगों का सवाल यह भी है कि राज्य में निजी संस्थानों में हर दिन कितने लोग अपनी नौकरी खो रहे हैं, उन्हें सरकारी भत्ते से क्यों वंचित रखा जाए? क्या मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक बार भी उनके बारे में नहीं सोचतीं? नए बेरोजगार हुए कुछ शिक्षाकर्मियों ने अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करना शुरू कर दिया है। कुछ बाजार में बैठकर सब्जी बेच रहे हैं। कुछ आठ से दस हजार रुपये की नौकरी पाने के लिए बेताब हैं। ३ अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट द्वारा २०१६ के पैनल से २५,७५२ लोगों की नौकरी रद्द करने के हाईकोर्ट के आदेश को बरकरार रखने के बाद मुख्यमंत्री ने यह सुनिश्चित करने का वादा किया था कि उनमें से एक भी व्यक्ति की नौकरी न जाए। फिर राज्य की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने अयोग्य पाए गए शिक्षकों को दिसंबर तक स्कूलों में काम करने और वेतन पाने की अनुमति दे दी। हालांकि, अगर वे नई एसएससी भर्ती परीक्षा पास नहीं करते हैं, तो जनवरी २०२६ से उन्हें यह अधिकार नहीं मिलेगा। शिक्षकों के बारे में इतना कुछ कहने वाले सुप्रीम कोर्ट के लगातार दो आदेशों के बावजूद, शिक्षाकर्मियों के बारे में कुछ खास नहीं कहा गया है। शिक्षाकर्मियों की भर्ती में इतना भ्रष्टाचार था कि सुप्रीम कोर्ट उनमें से एक को भी नौकरी में रखने के लिए सहमत नहीं हुआ!
हालांकि, यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि कोई शिक्षाकर्मी पात्र है या नहीं। मुख्यमंत्री ने कहा था कि राज्य सरकार इस मुद्दे के स्थायी समाधान होने तक ग्रुप-सी और ग्रुप-डी के कर्मचारियों को क्रमशः २५,००० रुपये और २०,००० रुपये मासिक भत्ता देगी। भत्ता मिलना शुरू हो गया है, लेकिन मुख्यमंत्री की घोषणा के खिलाफ हाईकोर्ट में मामला दायर किया गया है। आरोप है कि जिन शिक्षाकर्मियों की नौकरी सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दी है, उन्हें भत्ता देना कोर्ट की अवमानना है।
जस्टिस अमृता सिन्हा ने राज्य के वकील से पूछा कि इस मासिक भत्ते के बदले में शिक्षाकर्मी राज्य को क्या सेवा देंगे? सवाल यह था कि यह भत्ता कब तक चलेगा? यदि पुनर्विचार याचिका का इंतजार किया गया तो एक के बाद एक और याचिकाएं दायर की जाएंगी। पश्चिम बंगाल में पहले से ही भत्तों की भरमार है। लक्ष्मी भंडार, कन्याश्री, रूपश्री, वृद्धावस्था भत्ता, विधवा भत्ता, स्वास्थ्य साथी आदि।
सड़कों, बसों और ट्रेनों में यह कहा जाता है कि डनलप के बंद होने के इतने सालों बाद भी राज्य सरकार उस संस्थान के कर्मचारियों को १०,००० रुपये प्रति माह दे रही है। मुख्यमंत्री बेरोजगार ग्रुप-सी और ग्रुप-डी शिक्षाविदों को मासिक भत्ता देने की घोषणा कर रहे हैं। तो राज्य में सभी वंचित नौकरी चाहने वालों, अनगिनत बेरोजगारों और निजी संस्थानों के हजारों कर्मचारियों का क्या दोष है? क्या मुख्यमंत्री को उनकी दुर्दशा को देखते हुए कुछ कदम नहीं उठाने चाहिए?
बेशक, अर्थशास्त्र का मानना है कि भत्ते और सब्सिडी देना कोई स्थायी समाधान नहीं है। जिस राज्य में कोई नया उद्योग नहीं है, कारखाने बंद हैं और बेरोजगारी व्याप्त है, वहां लोगों के टैक्स के पैसे से साल-दर-साल भत्ते और सब्सिडी देने पर सवाल उठते हैं। इससे गरीबी नहीं हटेगी। बेरोजगारों के लिए रोजगार भी नहीं होगा। यह बेरोजगारी का स्थायी समाधान नहीं है। इसके विपरीत अर्थशास्त्रियों को डर है कि लोग काम करने से कतराने लगेंगे। कौन नहीं जानता कि काम के प्रति अरुचि आज राज्य के विकास में सबसे बड़ी बाधा है।