नई दिल्ली: वर्षों के बाद भारत में जाति में आधारित जनगणना होने जा रही है। भारत अगले सितम्बर से जनगणना प्रक्रिया शुरू करने की तैयारी कर रहा है। अनुमान है कि जनगणना पूरी होने में १८ महीने लगेंगे और इसके परिणाम २०२६ में सार्वजनिक किये जायेंगे।
विशेषज्ञों के अनुसार आगामी जनगणना में जाति को शामिल करने का निर्णय भारत सरकार का ऐतिहासिक निर्णय है। क्योंकि ऐसा लगभग सौ वर्षों के बाद हो रहा है। हालाँकि, इसके पक्ष और विपक्ष में बहस जारी है।
भारत में जाति जनगणना शुरू हुई
भारतीय जनगणना में केवल संविधान में सूचीबद्ध दलितों और आदिवासियों की ही गणना की जाती है। लेकिन अन्य जातीय समूहों की जनगणना १९३१ के बाद से नहीं की गई है।
भारत में जाति आधारित जनगणना ब्रिटिश शासन के दौरान शुरू हुई। नियमित जनगणना १८७१ में शुरू हुई। लेकिन जातियों की व्यवस्थित जनगणना १८८१ में ही शुरू हुई।
हालाँकि, ऐसी गणनाएँ केवल कुछ दशकों तक ही चलीं। १९३१ की जनगणना अंतिम थी जिसमें सभी जातियों का विवरण एकत्र किया गया था। तब केवल दलितों और मूलनिवासियों की ही गिनती की जाती थी।
भारत के स्वतंत्र होने के बाद, भारत सरकार ने विस्तृत जाति-आधारित जनगणना कराने से परहेज करने का निर्णय लिया। विशेषज्ञों के अनुसार, इसके पीछे डर यह था कि जाति आधारित जनगणना से सामाजिक विभाजन और बढ़ सकता है। भारत की लोकतांत्रिक परियोजना का उद्देश्य जातिविहीन समाज की ओर बढ़ना था, लेकिन जाति भारत के खून में इतनी गहराई से समा गई है कि वह सपना कागज पर ही रह गया।
२०११ में, केंद्र सरकार ने १९३१ के बाद पहली बार सभी जातियों की गणना करने का प्रयास किया। यह प्रयास सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना के माध्यम से किया गया। उस समय देश में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने २०११ की जनगणना में जाति आधारित आंकड़े एकत्र करने का निर्देश दिया था।
भारत के महापंजीयक एवं जनगणना आयुक्त ने केवल एक सर्वेक्षण कराया। जब नतीजे घोषित हुए, तब तक मनमोहन सिंह का कार्यकाल समाप्त होने के बाद नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बन चुके थे। जुलाई २०१४ में जारी आंकड़ों के अनुसार भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों की संख्या २१.५३ प्रतिशत थी।
हालाँकि, संविधान की अनुसूची में शामिल न किए गए अन्य जाति-आधारित आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया गया। कई राज्य सरकारों ने केंद्र सरकार पर जानबूझकर जाति आधारित विवरण छिपाने का आरोप लगाया था। आलोचकों ने कहा था, “तथ्यों को छिपाने से नस्ल नहीं छिपती।”
इसके बाद भारत में जाति आधारित जनगणना की मांग फिर तेज हो गई। इस बीच, बिहार राज्य सरकार ने २०२३ में जाति सर्वेक्षण कराया। इससे अन्य राज्यों में भी जाति सर्वेक्षण की मांग बढ़ गई। जाति आधारित आंकड़ों को लेकर राजनीतिक बहस भी तेज हो गई है, खासकर कर्नाटक, ओडिशा और महाराष्ट्र में।
पिछले महीने गुजरात में आयोजित कांग्रेस पार्टी के सम्मेलन में नेता राहुल गांधी ने जाति जनगणना का मुद्दा उठाया था। उन्होंने कहा था, “सभी को पता होना चाहिए कि देश में कितने दलित, पिछड़े वर्ग, आदिवासी, अल्पसंख्यक और गरीब हैं।” यह सार्वजनिक किया जाना चाहिए कि देश के संसाधनों में उनका कितना हिस्सा है।
लंबे समय से चली आ रही इस मांग के बाद ३० अप्रैल, २०२५ को भारत सरकार के केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने घोषणा की कि अगले सितंबर से शुरू होने वाली राष्ट्रीय जनगणना में जातियों की भी गणना की जाएगी।
केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में लिए गए निर्णय को याद करते हुए उन्होंने कहा, “जनगणना एक संघीय विषय है।” कुछ राज्यों ने सर्वेक्षण कराए हैं, लेकिन वे पारदर्शी नहीं हैं। राष्ट्रीय जनगणना सही ढंग से और संवैधानिक तरीके से आयोजित की जाएगी।
विशेषज्ञों के अनुसार, यह कदम अब राज्य की राजनीति तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि संघीय नीति बन जाएगा। हालाँकि, इसके आलोचक भी हैं। जाति जनगणना पर बहस आज भी तीव्र है।
समर्थकों ने इसे सामाजिक न्याय के लिए आवश्यक बताया है। हालाँकि, आलोचकों को चिंता है कि इससे सामाजिक विभाजन और गहरा होगा।