नयी दिल्ली: देश में प्रति १० लाख आबादी पर केवल १५ न्यायाधीश हैं, जो विधि आयोग की प्रति दस लाख की आबादी पर 50 न्यायाधीशों की सिफारिश से बहुत दूर है। कर्नाटक, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम और त्रिपुरा को छोड़कर सभी उच्च न्यायालयों में हर दो में से एक मामला तीन साल से अधिक समय से लंबित है और अंडमान एवं निकोबार, अरुणाचल प्रदेश, बिहार, गोवा, झारखंड, महाराष्ट्र, मेघालय, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की जिला अदालतों में ४० प्रतिशत से अधिक मामले तीन साल से अधिक समय से लंबित हैं।
प्रति दस लाख की आबादी पर 50 जज होने चाहिए: विधि आयोग
‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट’ 2025 में यह जानकारी देते हुए कहा गया है कि इसके ठीक विपरीत जनवरी २०२४ के न्यूयॉर्क टाइम्स समाचार पत्र की खबर के अनुसार अमेरिका में प्रति १० लाख की जनसंख्या पर १५० न्यायाधीश हैं। वहीं अक्टूबर २०२४ की यूरोप परिषद की रिपोर्ट के अनुसार २०२२ में यूरोप में प्रति १० लाख जनसंख्या पर औसतन २२० न्यायाधीश हैं। ‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट’ के अनुसार १.४ अरब लोगों के लिए भारत में २१,२८५ न्यायाधीश हैं या प्रति दस लाख की आबादी पर लगभग १५ न्यायाधीश हैं। यह १९८७ के विधि आयोग की प्रति दस लाख की आबादी पर ५० न्यायाधीशों की सिफारिश से काफी कम है। रिपोर्ट गत मंगलवार को जारी की गयी जिसमें देश में न्याय प्रदान करने के मामले में राज्यों की स्थिति की जानकारी दी गयी है।
उच्च न्यायालयों में जजों के २१% पद रिक्त:
रिपोर्ट के अनुसार उच्च न्यायालयों में रिक्तियां कुल स्वीकृत पदों की ३३ प्रतिशत हैं। रिपोर्ट में २०२५ में २१ प्रतिशत रिक्तियों का दावा किया गया, जो मौजूदा न्यायाधीशों के लिए अधिक कार्यभार को दर्शाता है। रिपोर्ट में बताया गया कि राष्ट्रीय स्तर पर जिला न्यायालयों में प्रति न्यायाधीश औसत कार्यभार २,२०० मामले है। इलाहाबाद और मध्यप्रदेश उच्च न्यायालयों में प्रति न्यायाधीश मुकदमों का बोझ १५,००० है। उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय (छह प्रतिशत) की तुलना में जिला न्यायालयों में महिला न्यायाधीशों की हिस्सेदारी अधिक है। वर्तमान में, २५ उच्च न्यायालयों में केवल एक महिला मुख्य न्यायाधीश हैं।
महिला जजों की हिस्सेदारी ३८.३ प्रतिशत हुई:
जिला न्यायपालिका में महिला न्यायाधीशों की कुल हिस्सेदारी २०१७ में ३० प्रतिशत से बढ़कर ३८.३ प्रतिशत हो गयी है और २०२५ में उच्च न्यायालयों में यह ११.४ प्रतिशत से बढ़कर १४ प्रतिशत हो गयी है। रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली की जिला अदालतें देश में सबसे कम रिक्तियों वाली न्यायिक शाखाओं में से हैं, जहां ११ प्रतिशत रिक्तियां हैं और ४५ प्रतिशत महिलाएं न्यायाधीश हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि जिला न्यायपालिका में केवल पांच प्रतिशत न्यायाधीश अनुसूचित जनजाति (एसटी) से और १४ प्रतिशत अनुसूचित जाति (एससी) से हैं। वर्ष २०१८ से नियुक्त उच्च न्यायालय के ६९८ न्यायाधीशों में से केवल ३७ न्यायाधीश एससी और एसटी श्रेणियों से हैं। रिपोर्ट के अनुसार न्यायपालिका में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का कुल प्रतिनिधित्व २५.६ प्रतिशत है।
प्रति व्यक्ति व्यय ६.४६ रुपये प्रति वर्ष कानूनी सहायता!
रिपोर्ट के अनुसार कानूनी सहायता पर राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति व्यय ६.४६ रुपये प्रति वर्ष है जबकि न्यायपालिका पर राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति व्यय १८२ रुपये है। रिपोर्ट में दावा किया गया कि कोई भी राज्य न्यायपालिका पर अपने कुल वार्षिक व्यय का एक प्रतिशत से अधिक खर्च नहीं करता है। रिपोर्ट में बताया गया कि दिल्ली में हर पांच में से एक मामला पांच साल से अधिक समय से लंबित है और दो प्रतिशत मामले १० वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं। रिपोर्ट में तत्काल और आधारभूत सुधारों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया तथा रिक्तियों को तत्काल भरने व प्रतिनिधित्व बढ़ाने पर जोर दिया गया।